सतत संघर्ष एवं अभूतपूर्व जिजीविषा की गहन व्याख्या व विश्लेषण को प्रस्तुत करती है आत्मकथा कृति
“जिंदगी के रंग परिस्थिति के संग”
पंकज मिश्र ‘अटल‘
संघर्ष एवं सिर्फ़ सतत संघर्ष जब जीवन के साथी बन जाते हैं तो कहीं न कहीं उस व्यक्तित्व को संवारते व निखारते भी हैं। साथ ही अभूतपूर्व उपलब्धियों के शिखर का संस्पर्श भी कराते हैं। जब मैं पुस्तक की पंक्तियों से गुजरता हूं, तमाम उतार – चढ़ावों, झंझावातों को महसूस करता हूं। परिशिष्ट को समाहित करते हुए 23 खंडों में पुस्तक के लेखन में लेखक ने स्वयं को विभिन्न कोणों से देखा है, पाठकों को दिखाया है, स्वयं को अनुभूत भी किया है। अपने अतीत को अपने आज को बहुत ही बेबाकी के साथ सबके समक्ष प्रस्तुत किया है, साझा किया है एवं अतीत की अनसुलझी कहानियों को सहज रूप से अभिव्यक्त भी किया है।
यहां मैं बताना चाहूंगा कि मैं निरंतर लेखक से उसके अध्ययनकाल से ही जुड़ा रहा हूं और उसके अंतर्मन की गुत्थियों को महसूस करता रहा हूं। साथ ही उलझे हुए धागों की भांति उसको सुलझाता भी रहा हूं। यदि पुस्तक के संदर्भ में विवेचक व विश्लेषक की भूमिका में आकर कुछ पंक्तियों में कहना चाहूं तो शायद न्याय नहीं होगा, सागर की गहराई में उतरना ही होगा, सीप और मोती तभी प्राप्त हो सकेंगे। इसी क्रम में मैं इस पुस्तक को विभिन्न उपभागों में से कुछ उत्तम ही तलाशूंगा, शायद यही बेहतर होगा, और सभी के लिए प्रेरक भी।
लेखक पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत अपने दादाजी के बचपन से लेकर उस काल को छूता है, जहां पिताजी की बीमारी और परिवार की परेशानियों के प्रारंभिक दौर में उसकी बुआएँ अपने मायके की जिम्मेदारी को निभाती है।
शायद इससे बड़ा सत्य लिखा नहीं जा सकता था। द्वितीय व तृतीय भाग में लेखक जहां एक ओर अपने बाल्यकाल में परिवार की स्थिति स्पष्ट करता है, वहीं दूसरी तरफ़ वह उस समय के सांस्कृतिक पहलुओं यथा खान – पान, रीति – रिवाज और रहन – सहन का भी वर्णन करता है, जो कि स्वाभाविक भी है।
प्रारंभिक शिक्षण जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ग्रामीण परिवेश में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि को रेखांकित करता है। साथ ही लेखक की प्रतिभा और दादाजी के संकल्प को भी प्रकट करता है। वहीं चतुर्थ व पंचम भाग में लेखक के शैक्षणिक उन्नयन के प्रतीक रूप में उसके नवोदय की तैयारी व प्रवेश का जिक्र आता है और शायद यही खंड लेखक के जीवन का पहला सुखद अनुभव भी है।
इसी क्रम में लेखक ने नवोदय पहुंचने पर अभूतपूर्व अनुभवों को भी साझा किया है, जो कि क्रमशः उसको अपनी ओर आकर्षित भी कर रहे थे। नवोदय की दिनचर्या से लेकर प्रत्येक गतिविधि यथा सदन व्यवस्था, भोजन व्यवस्था, सहशैक्षणिक गतिविधियां, खेल – कूद और गुरुजनों के खास लफ़्ज कहीं न कहीं सबके दिल को छूने वाले हैं।
कक्षा सात से लेकर कक्षा आठ तक लेखक अपने कुशल नेतृत्व से एक विशेष पहचान को अर्जित करता है। कक्षा नौ में लेखक शैक्षणिक प्रवास के तहत एक अहिंदी भाषी क्षेत्र में जाता है, सोमनाथ व दीव के अपने अविस्मरणीय पलों को जीता है और उनको सबके समक्ष प्रस्तुत करता है, साझा करता है, जो कि निश्चय ही विवेचनीय हैं।
कक्षा दस से संघर्षों के रूप बदलते हैं,मगर कक्षा ग्यारह में विद्यालय कप्तान भी बनता है, ये मनोबल को बढ़ाने में सहायक होता है। कक्षा बारह आरंभिक सुखद अनुभूति के साथ ही चिंता का आभास भी कराता है क्योंकि नवोदय छूट रहा था और समस्याएं मुंह बाएं खड़ी थीं। शायद वास्तविक संघर्ष एवं चुनौतियां जीवन की विसंगतियों के रूप में लेखक को विवश कर रही थी कि वह क्या करे और क्या न करे ! नवोदय पश्चात वह कभी पूना, कभी मुंबई, कभी गुजरात भटकता रहा तो कभी मंदिरों और दरगाहों की दहलीज पर भी ठोकरें खाता रहा।
स्वयं की शादी भी नहीं हुई, दादाजी भी नहीं रहे। धीरे – धीरे मनःस्थिति बदल रही थी। ये बदलाव आगे किस ओर ले जा रहा था, अनिश्चित सा था।
यहां तक आते – आते लेखक की मुलाकात किन्नर गुरू से होती है, इधर उसके जीवन में काफ़ी भटकाव और बिखरावों को महसूस किया जा सकता है। इस दौर में लेखक काफ़ी ऊहापोह की मनःस्थिति में रहता है, लोगों से विभिन्न मुद्दों पर टकराता है, वाद – विवाद की स्थिति बनती है परंतु उसमें परिवर्तित स्वरूप के साथ साधु स्वभाव भी झलकता है।
वह दीन-दुर्बल के साथ – साथ पर्यावरण व प्राणियों के प्रति भी संवेदना एवं सहानुभूति रखता है। बाड़मेर जाना और साधु बन जाना भी एक अप्रत्याशित घटना है। मैंने ग्रंथ के माध्यम से महसूस किया कि अस्थिरता का दौर समाप्त नहीं होता है। पिताजी के निधन के उपरांत वह सामान्य जीवन जीता है परंतु कुछ समस्याओं के चलते पुनः तीसरी दुनिया में प्रवेश कर लेता है।
यदि विश्लेषण की गहराई में जाया जाए तो उल्लेख करना पड़ेगा कि सामाजिक व लेखकीय दायरे के विस्तार की दृष्टि से कोरोनाकाल और किन्नर समाज से जुड़ाव कहीं न कहीं रचनाकार्य और सामाजिक पहचान की दृष्टि से श्रेयस्कर रहा, लेखक के रूप में स्थापित कर सका। बोईसर शिफ्ट होना, दहानू स्टेशन पर रहना, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति से जुड़ना, भारत जोड़ो यात्रा में जाना ये वे बिंदु हैं, जिन्होंने लेखन को नए आयाम प्रदान किए, स्थिरता की और आगे बढ़ने को प्रेरित किया, संघर्षरत बनाया और काफ़ी कुछ सिखाया भी।
अंततोगत्वा वह एक सशक्त मंच की आवश्यकता महसूस करता है, लिखता है, सतत लिखता है, अपनी कलम को धार देता है। पुस्तक प्रकाशन के उपरांत अमृतसर विश्वविद्यालय में गोपाल किरण समाजसेवी संस्था लेखक को सम्मानित करती है, जो कि संघर्ष के इस दौर में एकमात्र आशा की किरण रही।
इस पुस्तक को कई कोणों से विवेचित और विश्लेषित किया जा सकता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी लेखक ने जिस प्रकार स्वयं को प्रस्तुत किया है, अपने अतीत और वर्तमान को पाठकों के समक्ष रखा है और वह भी पूरी ईमानदारी के साथ, प्रत्येक कलमकार के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। लेखकीय भावना, पारदर्शिता एवं साहित्यिकता पुस्तक के आरंभ से अंत तक महसूस की जा सकती है।
परिशिष्ट तक आते – आते और विशेष रूप से परिशिष्ट के अंतर्गत नवोदय के साथियों व गुरुजनों की सूची, लेखन की दृष्टि से पहली रचना, दरिया दर्शन, जानवरों से सीख, कुदरत की कयामत, समय बड़ा बलवान है,श्रीकृष्ण उवाच इत्यादि विवरण जो है, अपने आपमें अनोखे हैं, जो लेखक की देश – दुनिया की घटनाओं पर पैनी दृष्टि के साथ – साथ अपने परिवेश के सूक्ष्म निरीक्षण एवं हृदय की सात्विकता के द्योतक है।
मैंने लेखक का आत्मकथ्य पढ़ा है, मैं पूर्व में ही बता चुका हूं कि मैं उससे अध्ययनकाल से ही जुड़ा हुआ हूं। वह जब भी किसी कार्य को करता है तो पूर्ण इच्छाशक्ति के साथ तन – मन और भावनाओं के समर्पण के साथ करता है। लेखन के माध्यम से स्वयं को प्रस्तुत करने के पीछे आत्मनिर्भर बनने के ध्येय को महसूस किया जा सकता है। निश्चय ही वह कहीं न कहीं इंगित करता है कि परिस्थितियां सदैव एक सी नहीं रहती, उतार – चढ़ाव व्यक्तिव को सजाते – संवारते हैं, निखारते हैं और संघर्ष समाज में पहचान दिलाने के साथ प्रेरणा भी प्रदान करते हैं। लेखक के जीवनमूल्यों एवं प्रेरणा में उसके दादाजी के व्यक्तित्व और विचारों तथा माताजी की सीख का गहरा प्रभाव है। अतः उनके विचारों की अनुगूंज लेखक के लेखन में भी ध्वनित होती है।
मैंने पांडुलिपि पर दृष्टि डालते हुए यह भी महसूस किया कि लेखक भाषा के व्यवहार में अतिरिक्त औपचारिकता नहीं दिखाता है, वह जैसा महसूस करता है ठीक वैसा ही प्रस्तुत करता है, फिर भी उसका लेखन साहित्यिक गंभीरता एवं वैचारिक परिपक्वता का परिचायक है। लेखन के प्रत्येक पहलू में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो विवादास्पद हो, अतार्किक हो, असहज हो या उलझाव को बढ़ावा देने वाला हो। सहजता और सरलता से लेखक अपने आपको पाठकों और विचारकों के समक्ष प्रस्तुत करता है, जो कि इतना सहज कार्य नहीं है। आत्मकथा या संस्मरण लिखते – लिखते अधिकांश कलमकार तो बहक जाते हैं, जिसपर नियंत्रण करना भी मुश्किल होता है, जिससे लेखक तथा लेखन दोनों पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस आत्मकथात्मक या संस्मरणात्मक पुस्तक का लेखक जिस प्रकार स्वयं को क्रमवार व्याख्यायित करता है, वह प्रशंसनीय तो है ही, प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्तित्व के साथ – साथ आमजन के लिए भी एक प्रेरणादाई विशिष्ट ग्रन्थ रूप में भी है।
अंततः मैं लेखक को इस अद्भुत सृजन हेतु बधाई एवं आशीष देने के साथ ही कहना चाहूंगा कि इस पुस्तक या आत्म कहानी को पढ़ना जीवन की यथार्थता से साक्षात्कार करने के समान है। यह पुस्तक लेखन की ऊंचाइयों का आभास तो कराती ही है, साथ ही लेखक के जीवन के विभिन्न सोपानों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत भी करती है, जो कि अद्भुत है। लेखक का अतीत और उससे जुड़ा बिखराव, तनाव, ठहराव और फिर बिखराव जैसी स्थिति परन्तु फिर भी अदम्य इच्छाशक्ति के साथ खड़े होना महाकवि निरालाजी की सरोज स्मृति की पंक्तियों का स्मरण करवाता है, वे लिखते हैं —
“दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज जो नहीं कही।”
सदा खुश रहो मेरे आत्मीय। शुभाशीष !
पंकज मिश्र ‘अटल‘
हिंदी शिक्षक
जवाहर नवोदय विद्यालय
मितौली, लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश – 262727
✍🏻 शब्द शिल्पी –
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Author: Tejas Reporter
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