शब्द शिल्पी, आत्म चिंतन : “जब मरना ही है, तो अच्छे से मरो” – आभास जैन एड.

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“जब मरना ही है, तो अच्छे से मरो”
ये कालचक्र वर्तुलाकार गतिमान है जीवन और मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है उत्पत्ति और खिपति का नियम ही इस संसार को सदैव नवीनता प्रदान करता है ।
काल की पदचाप ध्वनि रहित होती है जब तक काल सिरहाने आकर खड़ा नहीं हो जाता जीव को तब तक मृत्यु के स्वर सुनाई नहीं देते इसे ही जीवेषणा कहते है जीने की तीव्र इच्छा । इसी इच्छा का परिणाम देह से प्राणों के विलग होने में बाधक बनता है और मृत्यु को पीढ़ादायक बनाता है, जब जीवन को उत्सव की तरह भोगा तो मृत्यु का भी आनंद पूर्वक स्वागत करना चाहिए । जिस मनुष्य को जीवन की असीमता का आभास हो जाता है फिर उसे इस देह से उस देह का परिवर्तन सहज लगने लगता है ।
रोकर बीते या हंसकर बीते समय तो बीतेगा ही, हम समय की धुरी पर चाहकर भी स्थिर नहीं हो सकते, समय के साथ प्रत्येक पदार्थ परिवर्तन को प्राप्त करेगा तो क्यों न इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाये । मरते तो वे भी हैं जो उदास हैं तो क्यों न मुस्कुराया जाये, मरते तो वे भी है जो चल नहीं रहे हैं तो क्यों न यात्रा के अनुभव के साथ मरा जाये । जब मित्र और शत्रु दोनों को ही मरना है तो मित्रता का चुनाव करना ही श्रेष्ठ होना चाहिए ।
इससे पहले की काल हमारा द्वारा खटखटाये और हमें प्रतिक्रमण और पश्चाताप  का अवसर प्राप्त न हो इससे पहले की मृत्यु हमें निमंत्रण दे तो क्यों ना हम स्वयं ही उसे जीवन का अंग मानकर उसका स्वागत करें ।
संसार सुंदर था पंचइंद्रियों के भोग भी आनंद दायक थे शून्य के साथ जन्म लेने वाली देह ने विशाल साम्राज्य का संचय किया अतीत से प्राप्त अतुलनीय संपदा का उपभोग किया अब भविष्य को उसकी धरोहर सौंपकर इस जीर्ण-शीर्ण देह को त्यागने में संकोच क्यों । स्वयं त्यागने को सदैव तैयार रहो इससे पहले कि कोई और हमें हमसे चुरा ले ।
संसार मैं स्मरण रखने योग्य यदि कुछ है तो वह है मृत्यु परतु अच्छे से मरना तभी संभव है जब कोई अच्छे से जिया हो जिसने जीते जी मृत्यु की तैयारी की है वही अच्छे से मरने का आनंद ले सकेगा  ।


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