जैन धर्म : प्रयागराज और भगवान ऋषभदेव का दिव्य संबंध

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@शैलेंद्र कुमार जैन, लखनऊ
भगवान ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर, ने मानव सभ्यता को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 52 महाजनपदों की स्थापना की, जिनमें कोशल जनपद के अंतर्गत पुरिमतालपुर नगर भी शामिल था, जिसे उन्होंने अपने पुत्र वृषभसेन को सौंपा था। नीलांजना अप्सरा के नृत्य के दौरान हुई आकस्मिक मृत्यु ने भगवान ऋषभदेव को वैराग्य की ओर प्रेरित किया, जिससे उन्होंने राजपाट का त्याग कर दीक्षा लेने का निर्णय लिया।

अयोध्या से सुदर्शन नामक पालकी पर सवार होकर, भगवान ऋषभदेव पुरिमतालपुर के सिद्धार्थ वन पहुंचे, जहां उन्होंने पालकी से उतरकर सभी परिग्रहों का त्याग किया। चैत्र कृष्ण नवमी के दिन, सायंकाल में उत्तराषाढ़ नक्षत्र के दौरान, उन्होंने वटवृक्ष के नीचे पूर्वाभिमुख होकर दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ भरत के पुत्र मारीच सहित चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली। देवों और इंद्रों ने उसी स्थान पर पूजा कर दीक्षा कल्याणक मनाया, जिससे यह स्थान ‘प्रयाग’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंश पुराण’ के नवम सर्ग (95/97) में उल्लेख किया है:
“एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयत्! प्रदेशः स प्रयागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः”
  • इसी प्रकार, आचार्य रविषेण ने ‘पद्म पुराण’ के तृतीय पर्व (280/81/82) में लिखा है:
“प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यतः! प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः”
इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि भगवान ऋषभदेव के त्याग और प्रजा से दूर जाने के कारण इस स्थान का नाम ‘प्रयाग’ प्रसिद्ध हुआ।

उत्तरांचल में, जहां दो नदियों का संगम होता है, उसे ‘प्रयाग’ कहा जाता है, जैसे देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि। यहां तीन नदियों का संगम है, अतः इसे ‘प्रयागराज’ कहा जाता है।

दीक्षा के पश्चात, भगवान ऋषभदेव वहां छह माह तक रहे और फिर विभिन्न प्रदेशों में विहार कर धर्म का प्रचार किया। हजार वर्ष पश्चात, वे पुनः पुरिमतालपुर पहुंचे और शकट नामक वन में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पर्यंकासन से विराजमान हुए। फाल्गुन कृष्ण एकादशी को उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। समस्त देवों और इंद्रों ने आकर उनकी पूजा कर ज्ञान कल्याणक मनाया एवं समवसरण की रचना की।
भागवत पुराण के नवम सर्ग में उनके हस्तिनापुर एवं अयोध्या के निकट पुरिमतालपुर के समवसरण का उल्लेख मिलता है।

मान्यता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत की कुछ बूंदें प्रयागराज में भी गिरी थीं, अतः हर बारह वर्ष में कुंभ एवं छह वर्ष में अर्धकुंभ का विशाल मेला लगता है। यह तिथि माघ कृष्ण अमावस्या है, जो ऋषभदेव के मोक्ष कल्याणक (माघ कृष्ण चतुर्दशी) के दूसरे दिन पड़ती है, जिसे मौनी अमावस्या भी कहा जाता है।
जिस वटवृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान रूपी अक्षय ज्ञान की प्राप्ति हुई, उसे ‘अक्षयवट’ कहा जाने लगा। नंदी संघ की गुरावली में कहा गया है कि सम्मेद शिखर, चंपापुरी, उज्जयंतगिरि, अक्षयवट आदि आदीश्वर दीक्षा सर्वसिद्धि क्षेत्र कृत यात्राणं, जिसमें अक्षयवट तीर्थ का उल्लेख दृष्टव्य है।
इसी प्रकार, काष्ठा संघ नंदी तट गच्छ के भट्टारक श्री भूषण के शिष्य नयनसागर ने 16वीं-17वीं सदी की अपनी ‘तीर्थ वंदना’ नामक रचना में प्रयाग का उल्लेख इस प्रकार किया है:
“गंगा जमुना मध्य नगर प्रयाग प्रसिद्धह, जिनवार वृषभदयाल धृत संयम मन सुद्धह, वट प्रयाग तल जैन योग धर्मो सद्भास, प्रगटवो तीर्थ प्रसिद्ध पूरत भविमण आसह, प्रयाग वट दीखे थके पाप सकलन परिहरे, व्रहत ज्ञान सागर वदति के प्रयाग तीर्थ बहुसुख करें”
‘प्राचीन तीर्थ माला संग्रह’ भाग 1, पृष्ठ 10-11 के अनुसार, प्राचीन समय में यहां भगवान ऋषभदेव के चरण विराजमान थे, किंतु 16वीं सदी में राय कल्याण नामक सूबेदार ने चरण हटाकर शिवलिंग स्थापित कर दिया। ‘विविध तीर्थ कल्प’ के अनुसार, आचार्य अवंतिका पुत्र के केवली स्थल के रूप में यहीं पर ऋषभदेव की माता मरुदेवी को केवलज्ञान प्राप्ति हुई थी, जो श्वेतांबर परंपरा में पुरिमलालपुर के नाम से प्रसिद्ध है।
रामायण काल में भगवान राम ने भी प्रयागराज में इस वटवृक्ष के नीचे पूजा की थी, ऐसी मान्यता है।
भगवान ऋषभदेव के चरणों से पावन हुई यह भूमि अनादि काल से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बनी हुई है।
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